12 दिन की जंग: ईरान और इज़राइल की टकराहट से कांप उठा विश्व
ईरान-इज़राइल संघर्ष के दौरान 12 दिनों की आग, डर और उम्मीद की इंसानी दास्तान
जब समय थम गया - मध्य पूर्व की सिसकती घड़ियाँ
बारह दिनों तक ऐसा लगा जैसे समय रुक गया हो। हर एक ब्रेकिंग न्यूज़, हर एक सोशल मीडिया पोस्ट और हर एक लाइव फुटेज ने पूरी दुनिया को एक गहरी सिहरन में डाल दिया। मैं आज भी याद करता हूँ, कैसे मैं अपने कमरे के कोने में बैठा, फोन पर लगातार अपडेट रिफ्रेश कर रहा था - जैसे किसी डरावनी फिल्म को देख रहा हूँ, बस इस बार कोई स्क्रिप्ट नहीं थी, कोई डायरेक्टर नहीं था, और कोई अंत नहीं था।
यह सिर्फ भू-राजनीति की बात नहीं थी। यह उन गलियों की बात थी जो मिसाइलों से भर गई थीं, उन माँओं की बात थी जो बच्चों को गोद में लेकर बंकरों में छुपीं थीं, और उन लोगों की बात थी जो एक रात और जीने की दुआ कर रहे थे।
ईरान और इज़राइल के बीच लंबे समय से चल रही खींचतान एक खुले, सीधी टक्कर में बदल चुकी थी। दुनिया डर के साए में साँस ले रही थी।
पहला दिन: चिंगारी जो ज्वाला बन गई
सब कुछ उस हमले से शुरू हुआ जिसने मध्य-पूर्व की हवा को और भी ज़हरीला बना दिया। सीरिया में स्थित एक दूतावास पर हमला हुआ, जिसमें ईरान के वरिष्ठ अधिकारियों की मौत हो गई। जवाब में ईरान ने इज़राइल पर मिसाइल और ड्रोन हमले शुरू कर दिए - और इतिहास का नया, भयावह अध्याय शुरू हो गया।
पहली बार, यह सिर्फ साए की लड़ाई नहीं रही। ईरान और इज़राइल आमने-सामने आ चुके थे।
अब यह सिर्फ साइबर युद्ध नहीं था - यह एक खुला युद्ध था।
विचार करने का प्रश्न:
जब युद्ध टीवी या मोबाइल की स्क्रीन पर लाइव होने लगे, तो हम अपनी भावनाओं को कैसे संभालते हैं?
दूसरे से चौथे दिन: सायरनों के बीच काँपती ज़िंदगी
तेल अवीव के आसमान में रौशनी की लकीरें दौड़ रही थीं - लेकिन यह कोई उत्सव नहीं था। यह रक्षा प्रणाली की कोशिश थी लोगों को बचाने की। तेहरान में सन्नाटा था, लेकिन भीतर ही भीतर कुछ उबल रहा था। इज़राइली नेता ‘राष्ट्रीय एकता’ की बात कर रहे थे, और ईरानी मीडिया “क्रांति की आवाज़” बन गया था।
आम लोग दो देशों के बीच की इस लड़ाई में मोहरे बन गए।
- माँएं बच्चों को सीढ़ियों के नीचे छुपा रही थीं
- बुज़ुर्ग अंधेरे में मोमबत्ती के सामने प्रार्थना कर रहे थे
- विद्यार्थी स्कूल नहीं जा सके
- शादियाँ स्थगित हो गईं
“ऐसा लगा जैसे आसमान आग बरसा रहा हो,” - यह एक 17 वर्षीय इज़राइली लड़के की वो बात थी जिसने मेरा दिल तोड़ दिया।
उसी समय, एक ईरानी लड़की ने इंस्टाग्राम पर लिखा: “हम अपनी सरकार नहीं हैं। हम सिर्फ जीना चाहते हैं - किसी और की लड़ाई में मरना नहीं।”
ये आवाज़ें अकेली नहीं थीं - यह एक वैश्विक मानवीय पुकार थी: हमें इस सबसे मुक्ति दो।
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पाँचवा दिन: जवाबी हमले और धुंधले सच
अब दोनों ओर से जवाबी हमले शुरू हो चुके थे। इज़राइल ने ईरान के भीतर गहरे सैन्य ठिकानों पर हमला किया। बदले में ईरान ने यरुशलम और हाइफ़ा के नज़दीक नागरिक और सैन्य ठिकानों पर मिसाइलें दागीं। मरने वालों की संख्या बढ़ने लगी। अस्पताल भरने लगे। उड़ानें रद्द हो गईं। बाज़ार डगमगाने लगे।
और फिर भी, amidst this, इंसानियत की छोटी-छोटी झलकें दिखाई दीं।
- एक इज़राइली एम्बुलेंस दल ने मिसाइल वार्निंग के बावजूद एक ईरानी परिवार को बचाया
- एक ईरानी नर्स ने एक यहूदी अस्पताल को खाली कराने में मदद की
युद्ध अमानवीय बना देता है। लेकिन इंसान हर बार उस अमानवता के खिलाफ खड़ा हो जाता है - और यही उम्मीद की रेखा है।
छठे से आठवें दिन: दुनिया देखती रही - चुप और बँटी हुई
संयुक्त राष्ट्र में आपातकालीन बैठकें शुरू हुईं। पश्चिमी देश इज़राइल के साथ खड़े हुए। रूस और चीन ने ईरान को ‘नियंत्रित समर्थन’ दिया। और इन सबके बीच, दो देशों के आम लोग - जो सिर्फ शांति चाहते थे - वैश्विक राजनीति के शिकार बन गए।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेताओं ने रणनीति की बातें कीं, लेकिन किसी ने उस बच्चे का नाम नहीं लिया जो हाइफ़ा में दोनों पैर खो बैठा। या उस बुज़ुर्ग दंपती का, जो क़ुम में मलबे के नीचे दब गए।
डायरी प्रश्न:
जब सरकारें युद्ध करती हैं, तब एक देश की आत्मा किस हद तक घायल होती है?
नवाँ दिन: डिजिटल जंग और असल तकलीफें
अब जंग डिजिटल भी हो चुकी थी। तेहरान की मेट्रो सेवा हैकिंग के कारण घंटों बंद रही। जवाब में इज़राइल के उत्तरी इलाकों की बिजली बंद कर दी गई।
- स्कूल बंद
- अस्पतालों की सिस्टम फेल
- बैंक फ्रीज़
साइबर जंग ने ज़िंदगी के हर पहलू को पंगु बना दिया।
सुझावित पढ़ाई:इस तरह के समय में कई लोगों ने धीरे चलो तो दूर तक जाओ जैसी सोच को अपनाकर खुद को संतुलन में रखने की कोशिश की।
दसवाँ दिन: भावनात्मक टूटन
अब वे भी रोने लगे जो कभी मज़बूत कहलाते थे।
- मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन पर रिकॉर्ड कॉल्स
- नींद ना आना, घबराहट, डिप्रेशन आम हो गया
- बंकरों में लोग सिर्फ सुरक्षा नहीं, अपनापन ढूंढ रहे थे
ये युद्ध सिर्फ मिसाइलों का नहीं था - यह एक भावनात्मक थकावट की लड़ाई थी।
एक कुत्ते की तस्वीर देखकर मैं भी रो पड़ा - वह मलबे के पास बैठा अपने मालिकों का इंतज़ार कर रहा था।
ग्यारहवाँ दिन: सीज़फायर की फुसफुसाहट
जैसे-जैसे आर्थिक नुकसान बढ़ने लगे, सीज़फायर की बातें होने लगीं। तुर्की और ओमान के ज़रिए गुप्त वार्ताएं शुरू हुईं। हमले धीमे पड़े। ड्रोन रुके। सायरन कम हुए।
शायद दोनों देशों ने थक कर, आईने में अपनी सूरत देखी और समझा: बस, अब और नहीं।
बारहवाँ दिन: शांति... फिलहाल के लिए
बारहवें दिन एक अनौपचारिक, नाज़ुक सा सीज़फायर घोषित हुआ।
कोई भाषण नहीं। कोई जीत का झंडा नहीं। बस ख़ामोशी।
लोग घरों से बाहर निकले। दुकानों ने धीरे-धीरे खोलना शुरू किया। स्कूल अब भी बंद थे। कोई खुश नहीं था, कोई नाच नहीं रहा था। लेकिन, कम से कम पहली बार, नींद आ सकी - बिना सायरन के।
पढ़ने लायक: छोड़ देने की शांति - युद्ध के बाद एक आत्ममंथन की ज़रूरत
जंग ख़त्म नहीं हुई - लेकिन कुछ बदल गया
12 दिन की जंग कोई सामान्य घटना नहीं थी। यह एक सामूहिक भावनात्मक परीक्षा थी।
पूरी दुनिया ने देखा, महसूस किया, और भीतर तक कांपी।
पर इन राखों के बीच कुछ सीखें भी छिपी थीं:
- युद्ध सिर्फ इमारतें नहीं, पहचान भी तोड़ता है
- करुणा की कोई सीमा नहीं होती
- दुख हमें बाँधता है, तोड़ता नहीं
अब हमें क्या याद रखना है?
यह लेख किसी पक्ष का समर्थन नहीं करता। यह बस एक विनती है - इंसानियत का साथ दें।
राजनीति और रणनीति अपनी जगह हैं, लेकिन ज़रूरत है आत्मा की आवाज़ सुनने की।
विचार के लिए प्रश्न:
- जब मैं युद्ध की ख़बरें पढ़ता हूँ, तब मेरे भीतर क्या भाव उठते हैं?
- क्या मैं पीड़ा को आंकड़ों की तरह देखता हूँ या खुद के ही प्रतिबिंब की तरह?
- क्या शांति के लिए ‘पॉज़’ लेना भी एक हथियार हो सकता है?
जर्नलिंग का विषय:
अगर मैं 12 दिन तक युद्ध क्षेत्र में रहता, तो मुझे सबसे ज़्यादा किस चीज़ की कमी महसूस होती?
अंतिम पंक्तियाँ
शायद युद्ध के समय सबसे क्रांतिकारी काम यह है - न बदला लेना, न जीतना… बस रुक जाना, सोचना, और कुछ कोमल सपने देख लेना।
गोले चलें या नहीं, मानवता हमेशा कुछ न कुछ फुसफुसाती रहती है।
बस, क्या हम उसे सुनने को तैयार हैं?