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एक महिला खिड़की से आती धूप में अकेले बैठी हुई
जब अकेलापन सुरक्षा बन जाए: शांति के नाम पर भावनात्मक दूरी

जब 'अपनी शांति की रक्षा' भावनात्मक भागने का बहाना बन जाए

सेल्फ-केयर के नाम पर हम क्या अनदेखा कर रहे हैं?


जब 'अपनी शांति की रक्षा' असल में भावनात्मक भागने का बहाना बन जाए

आजकल हर जगह “अपनी शांति की रक्षा करो” का मंत्र सुनाई देता है इंस्टाग्राम कैप्शन से लेकर ब्रेकअप एडवाइस तक। यह एक आदर्श वाक्य बन गया है: अपने मन को शांत रखो, झगड़ों से दूर रहो, किसी से उलझो मत।

और हाँ, कई बार यह एकदम सही भी होता है। हर बात का जवाब देना ज़रूरी नहीं होता। हर बहस में पड़ना बुद्धिमानी नहीं होती।

लेकिन अब यह मंत्र कुछ और बनता जा रहा है भावनात्मक जिम्मेदारी से बचने का आसान रास्ता

असल समस्या यह है कि:

आप विकास तब नहीं करते जब आप असहज स्थितियों से भागते हैं आप तब करते हैं जब आप उनमें ठहरना सीखते हैं, बिना टूटे।


जो हम मानते हैं: “शांति की रक्षा = हर असुविधा से दूरी”

आजकल हमें यही सिखाया जा रहा है

अगर कोई आपको परेशान करता है, ट्रिगर करता है, आपकी सोच को चुनौती देता है तो बस छोड़ दो। ब्लॉक कर दो। कट ऑफ कर दो।


शांति का मतलब बन गया है: कोई ड्रामा नहीं, कोई बहस नहीं, कोई टकराव नहीं।

लेकिन जब वह “ड्रामा” आपके पार्टनर की ईमानदार भावनाएं होती हैं?

या जब वह “टकराव” आपके अपने व्यवहार पर मिलने वाला जरूरी फीडबैक होता है?

या जब वह “ट्रिगर” आपके अंदर के किसी पुराने ज़ख्म को उजागर कर रहा होता है?

तो क्या उस असुविधा से भागना सही होता है? या वह असल में एक मौका होता है आगे बढ़ने का?


वह सच्चाई जो कोई नहीं कहता


असल शांति का मतलब होता है: मुश्किलों के बीच भी स्थिर रहना।

टकराव से बचना आपको मानसिक रूप से मज़बूत नहीं बनाता वह बस ज़रूरी टकराव को टालता है।

और जिस "शांति" की आप तलाश कर रहे हैं वह कभी-कभी अकेलापन भी बन जाती है।

हमने भावनात्मक सुन्नता को स्थिरता समझ लिया है।

हम सोचते हैं कि हर असहज भावना एक “रेड फ्लैग” है जब असल में वो एक सीखने का संकेत हो सकता है।


असल में क्या हो रहा है: क्यों हम असुविधा से डरते हैं

बचपन में शायद आपने शांति तभी देखी जब घर में कोई बात ही नहीं होती थी या फिर शांति कभी होती ही नहीं थी।

तो अब जब कोई व्यक्ति गहराई से बात करता है, या ईमानदारी से सवाल पूछता है तो हम भावनात्मक खतरा महसूस करने लगते हैं।

और सोशल मीडिया इस प्रवृत्ति को और बढ़ा देता है।

वह आपको सिखाता है:

    • “Toxic” बोलो, और ब्लॉक कर दो।
    • हर असहज इंसान को ‘cut off’ कर दो।
    • हर बहस को ‘vibe killer’ कहकर टाल दो।

यह भागने को महिमा मंडित करता है टिके रहने को नहीं।


माइंडसेट शिफ्ट: असुविधा खतरा नहीं, डेटा है

अब एक सवाल पूछिए:

क्या मैं सच में अपनी शांति की रक्षा कर रहा हूँ?

या मैं असुविधा से डर कर भाग रहा हूँ?


फर्क जानना ज़रूरी है।

हर कठिन बातचीत एक जहरीला रिश्ता नहीं होती।

हर ट्रिगर एक खतरा नहीं होता वो एक दरवाज़ा भी हो सकता है, आपकी अपनी गहराई तक पहुँचने का।


कुछ उपयोगी सवाल:

    • क्या मैं यह निर्णय आत्म-सम्मान से ले रहा हूँ, या डर से?
    • क्या यह दूरी मुझे स्पष्टता दे रही है, या सिर्फ भावनात्मक राहत?

शांति तब नहीं आती जब आप सब कुछ काट देते हैं।


वह तब आती है जब आप मुश्किलों के बीच भी अपने आप को थाम पाते हैं।


अंत में: जिम्मेदारी लें, दोष नहीं

इस लेख का मक़सद यह नहीं है कि आप खुद को दोष दें

बल्कि यह है कि आप खुद से ईमानदारी से सवाल करें।

हर बार “cut off” करना समाधान नहीं होता।

हर बार "protect your peace" कहना आपको शांति नहीं, सिर्फ अस्थायी राहत देता है।


सच्ची शक्ति तब है जब आप रुक कर सुनते हैं।


जब आप असहजता को सहन कर सकते हैं और फिर भी जुड़े रहते हैं।

क्योंकि स्पष्टता और विकास भागने में नहीं, ठहरने में होते हैं।